ऐसा एनकाउंटर कभी नहीं हुआ, बदलापुर के आरोपी अक्षय शिंदे से ये कैसा बदला? एनकाउंटर के हर पहलू पर पूरी पड़ताल
जिस पुलिस वैन में अक्षय शिंदे को जेल से लाया जा रहा था, उसकी सभी खिड़कियों को काले कपड़ों से ढक दिया गया था। वैन के अंदर पुलिस को ऐसा क्या छुपाना था? या फिर क्या नहीं दिखाना था? वैन के अंदर चार-चार पुलिस वाले थे। जबकि अक्षय शिंदे अकेला। सवाल ये कि वो अकेला चार पर कैसे भारी पड़ गया? चार-चार पुलिस वाले मिल कर भी उसे काबू क्यों नहीं कर पाए?
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मुंबई से दीपेश त्रिपाठी और सौरव वक्तानिया की रिपोर्ट
Mumbai: दिन- 23 सितंबर, सोमवार । जगह: क्राइम ब्रांच दफ़्तर, ठाणे । वक्त: दोपहर के 2.30 बजे। सौ से ज्यादा एनकाउंटर कर चुके और कभी मुंबई के सुपर कॉप रहे प्रदीप शर्मा के साथ काम कर चुके सब इंस्पेक्टर संजय शिंदे एक पुलिस वैन में, जिसे महाराष्ट्र में पुलिस डब्बा कहा जाता है, अपने तीन जूनियर पुलिस वालों के साथ तलोजा जेल के लिए निकलते हैं। संजय शिंदे के साथ इस पुलिस वैन में बाकी तीन पुलिस वाले थे- एपीआई नीलेश मोरे, हवलदार अभिजीत मोरे और हरीश तावड़े। पुलिस वैन का ड्राइवर एक एक्स सर्विसमैन था।
वक्त: शाम 5.30 बजे। जगह: तलोजा जेल, मुंबई। संजय शिंदे और उनके साथी शाम साढ़े पांच बजे तलोजा जेल में बंद बदलापुर रेप केस के आरोपी अक्षय शिंदे को रिमांड पर लेकर इसी वैन में बैठ जाते हैं। बदलापुर स्कूल में बच्चियों के यौन शोषण के मामले का खुलासा होने के बाद अक्षय शिंदे की पत्नी ने भी अक्षय के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट लिखाई थी। ये शिकायत जबरन अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने को ले कर थी।इसी शिकायत पर ठाणे की क्राइम ब्रांच अक्षय को पूछताछ के लिए क्राइम ब्रांच के दफ्तर लेकर जा रही थी। वैन में आगे ड्राइवर के बराबर में खुद सब इंस्पेक्टर संजय शिंदे बैठे थे। जबकि वैन के पिछले हिस्से में बाकी तीन पुलिस वालों के साथ अक्षय शिंदे था।
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वक्त: शाम 6.25 मिनट। जगह: मुंब्रा बाइपास। वैन अब मुंब्रा बाइपास से गुजर रही थी। ये पूरा इलाका बेहद सुनसान है। अक्सर यहां लूटपाट हुआ करती है। न आस-पास में कोई बस्ती है और ना ही कोई दुकान। दूर-दूर तक कोई सीसीटीवी कैमरा भी नहीं है। और ठीक तभी चलती वैन में गोली चलती है। संजय शिंदे के मुताबिक वैन के पीछे बैठे नीलेश मोरे ने सबसे पहले उन्हें फोन किया और कहा कि अक्षय शिंदे जोर जोर से चिल्ला रहा है और झगड़ा कर रहा है। वो बार-बार यही पूछ रहा है कि उसे कहां ले जा रहे हैं। ये सुनते ही संजय शिंदे ने वैन रुकवाई और खुद भी पीछे जा कर उन चारों के साथ बैठ गए। संजय शिंदे के मुताबिक उसी दौरान अक्षय शिंदे एपीआई नीलेश मोरे की कमर में लगी सरकारी पिस्टल छीनने की कोशिश करने लगा। इसी छीना झपटी के दौरान अचानक मोरे की पिस्टल लोड हो गई और उससे गोली चल गई। गोली मोरे के बांये पैर में लगी। जिससे वो नीचे गिर गया। इसके बाद अक्षय शिंदे ने दो और गोली चलाई। लेकिन सौभाग्य से वो किसी को लगी नहीं। इसी के बाद मैंने संजय शिंदे ने अपनी और अपने साथियों की सुरक्षा के लिए अपनी पिस्तौल से अक्षय की तरफ एक गोली चलाई। जिससे वो घायल हो गया और नीचे गिर पड़ा। फिर उसके हाथ से पिस्टल छूट गई। इसके बाद पुलिसवाले गाड़ी लेकर पास के ही छत्रपति शिवाजी महाराज अस्पताल, कलवा पहुंचे। जहां उन्हें बाद में पता चला कि अक्षय शिंदे की मौत हो गई है। नीलेश मोरे को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। बाकी दो और पुलिस वालों को भी अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। क्योंकि उन दोनों का बीपी बढ़ गया था और उन्हें एंग्जाइटी होने लगी थी।
पुलिस की कहानी में झोल
ये एनकाउंटर स्पेशलिस्ट संजय शिंदे का वो बयान है, जो एफआईआर में दर्ज है। और ये वही एफआईआर है जो अक्षय के एनकाउंटर के बाद लिखी गई। तो पुलिस की कहानी तो अपने सुन ली। अब आइए इस कहानी के झोल के बारे में बात करते हैं। उस झोल के बारे में जिस पर आज बॉम्बे हाईकोर्ट तक ने सवाल उठाए। ना सिर्फ सवाल उठाए, बल्कि कोर्ट ने ये तक कह डाला कि ये एनकाउंटर तो कतई नहीं है। अब सवाल है कि अगर ये एनकाउंटर नहीं है, तो फिर क्या है? एनकाउंटर के नाम पर एक और क़त्ल? यानी बदलापुर के यौन शोषण के आरोपी अक्षय शिंदे का खुद पुलिस ने क़त्ल किया है? तो चलिए सिलसिलेवार इस झोल की पोल खोलते हैं।
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अक्षय को जेल से निकालने की टाइमिंग पर सवाल
इस झोल की शुरुआत टाइमिंग से। कमाल देखिए कि बदलापुर जैसे हादसे के बाद जिस अक्षय शिंदे को भीड़ के गुस्से से बचाते हुए तलोजा जेल भेजा गया था, उसी अक्षय शिंदे के खिलाफ अचानक उसकी बीवी एक रिपोर्ट लिखवाती है। और महाराष्ट्र पुलिस उस रिपोर्ट पर इतनी एक्टिव हो जाती है कि आनन-फानन में उसे जेल से बाहर निकालने का फैसला कर लेती है। पूछताछ करने के नाम पर। टाइमिंग पर ध्यान दीजिएगा। क्राइम ब्रांच की टीम एनकाउंटर स्पेशलिस्ट संजय शिंदे की अगुवाई में तलोजा जेल शाम के साढ़े पांच बजे पहुंचती है। जबकि ये आम नियम और प्रक्रिया है कि किसी को जेल से पूछताछ के लिए जब बाहर लाया जाता है, तो सबसे पहले उसका मेडिकल होता है, फिर उसे अदालत में पेश किया जाता है। अब शाम साढ़े पांच के बाद कौन सी अदालत बैठती है? क्या मुंबई पुलिस के पास इसका जवाब है?
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क्या छिपाना चाहती है पुलिस?
सूत्रों के मुताबिक जिस पुलिस वैन में अक्षय शिंदे को जेल से लाया जा रहा था, उसकी सभी खिड़कियों को काले कपड़ों से ढक दिया गया था। वैन के अंदर पुलिस को ऐसा क्या छुपाना था? या फिर क्या नहीं दिखाना था? वैन के अंदर चार-चार पुलिस वाले थे। जबकि अक्षय शिंदे अकेला। सवाल ये कि वो अकेला चार पर कैसे भारी पड़ गया? चार-चार पुलिस वाले उसे काबू क्यों नहीं कर पाए? एफआईआर के मुताबिक छीना झपटी के दौरान एपीआई नीलेश मोरे का सरकारी पिस्टल खुद ही लोड हो गया था। और फिर गोली भी चल गई। सवाल ये है कि क्या मोरे का पिस्टल लॉक था या नहीं? अगर वो अनलॉक्ड था, तो वैन में अनलॉक्ड पिस्टल लेकर चलने का क्या मतलब? एफआईआर के मुताबिक अक्षय ने तीन गोलियां चलाई थी। एक मोरे के पैर में लगी। सवाल ये है कि बाकी की दो गोलियां कहां गई? अगर अक्षय सचमुच मोरे की पिस्टल छीन चुका था और गोलियां चला रहा था, तब भी सवाल ये है कि उस पर काबू पाने के लिए उसके हाथ या पैर में गोली मारी जा सकती थी। लेकिन गोली सीधे सिर में क्यों मारी गई? और सबसे बड़ा सवाल ये कि मुंब्रा बाईपास पर इस पुलिस वैन के अंदर सब कुछ होता रहा। गोलियां चलती रहीं। लेकिन वैन कहीं नहीं रुकी। वैन रुकी तो सीधे छत्रपति शिवाजी महाराज अस्पताल जाकर। अमूमन जब ऐसा कोई हादसा होता है, तो फौरन गाड़ी रोक दी जाती है। पुलिस मदद बुलाती है। या लोकल पुलिस को इनफॉर्म करती है। पर यहां चलती गाड़ी में सब कुछ होता रहा और चलती गाड़ी सीधे अस्पताल पहुंच गई।
एनकाउंटर का न कोई सबूत, न गवाह
ये वो सवाल हैं जो सिर्फ हम नहीं बल्कि बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी उठाए हैं। बॉम्बे हाई कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसिजर यानी एसओपी है कि ऐसी सूरत में पुलिस वालों को पहले गोली कमर के नीचे मारनी होती है। और अगर सामने वाले के पास हथियार है, तो फिर गोली हाथों पर चलाई जाती है। लेकिन यहां इस मामले में सीधे अक्षय शिंदे के सिर में गोली मारी गई। सवाल टाइमिंग और लोकेशन को लेकर भी है। कमाल ये है कि अक्षय ने तभी झगड़ा करना शुरू किया, तभी उसने पिस्टल छीनने की कोशिश की और तभी संजय शिंदे ने उस पर गोली चलाई, जब ये पुलिस वैन मुंब्रा बाइपास के सबसे सुनसान इलाके से गुजर रहा था। जहां आस-पास ना कोई सीसीटीवी कैमरा था, जो वैन को कैप्चर कर सके, ना कोई ऐसा कोई चश्मदीद जो चलती वैन में हुए शूटआउट को देख-समझ सके, और ना ही ऐसी कोई गाड़ी जिसे कुछ अटपटा लगा हो। और जिसने वैन को देखा हो। यानी कुल मिलाकर मुंब्रा बाइपास के इस सुनसान इलाके में 23 सितंबर की शाम 6 बजकर 35 मिनट पर जो कुछ हुआ, उसके गवाह वही चार पुलिस वाले हैं, जिन पर इस वक्त एनकाउंटर के नाम पर अक्षय शिंदे के कत्ल का इल्जाम लग रहा है। अब ऐसे में कोई भी जांच टीम वो सबूत कहां से लाएगी, जो इस एनकाउंटर का सच बेनक़ाब कर सके। हाईकोर्ट ने इस एनकाउंटर से जुड़े कई और सवाल और सबूत मांगे हैं। सात दिन बाद फिर से इसकी सुनवाई करने के लिए। बहुत मुमकिन है कि सात दिन बाद इस एनकाउंटर को लेकर बॉम्बे हाई कोर्ट कोई फैसला भी सुना दे।
क्या पुलिस की गोलियां करेंगी इंसाफ?
वैसे कुल मिलाकर इस एनकाउंटर को लेकर महाराष्ट्र पुलिस के पास फिलहाल एक भी ऐसा जवाब नहीं है जो सवालों के मुंह बंद कर सके। इस बात का अहसास खुद पुलिस को भी है। बाकी लोगों को सोचना और तय करना है कि क्या बदलापुर के आरोपी अक्षय शिंदे से उसके गुनाहों का जो अभी अदालत में साबित भी नहीं हुए हैं, इस तरह बदला लिया जाना, सही है? क्या किसी भी ऐसी वारदात के बाद लोगों के गुस्से को शांत करने का एनकाउंटर ही एक रास्ता है? क्या अदालतों के बजाय अब सड़क पर इंसाफ होगा? और क्या ये इंसाफ अब पुलिस की गोलियां करेंगी? सोचिए जरूर..
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