Shaheed Diwas: भगत सिंह को अब तक क्यों नहीं मिला शहीद का दर्जा, अब यहां अटकी शहीद-ए-आज़म की फ़ाइल

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Shaheed Diwas: भगत सिंह को अब तक क्यों नहीं मिला शहीद का दर्जा, अब यहां अटकी शहीद-ए-आज़म की फ़ाइल
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आख़िर भगत सिंह को इंसाफ़ कब तक?

23 March Shaheed Diwas: भगत सिंह कौन थे? आज की तारीख में अगर किसी से ये सवाल पूछा जाए तो वो आपको निहायत ही मूर्ख समझेगा? और आपके सवाल पूछते ही वो आपको अपने ज्ञान की गंगा में गोते लगाने को मजबूर कर देगा। लेकिन उसके ज्ञान का सागर निचुड़ते ही अगर एक बार फिर आप उससे पूछ बैठें कि भगत सिंह कौन थे?

तो आपका सवाल सुनकर वो सकपका सकता है। और अगर थोड़ा भी समझदार हुआ तो यकीनन आपके इस सवाल के बाद रुक जाएगा और सोचने लगेगा कि आखिर इस सवाल का असली मतलब क्या है? भारत में बच्चा बच्चा जानता है कि कहानी और किताबों में भगत सिंह को शहीद-ए-आज़म भी कहा जाता है। हिन्दुस्तान में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ छिड़ी आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह को शहीदों की फेहरिस्त में बहुत ऊपर का दर्जा हासिल है।

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हर तबके और हर वर्ग के लोग भगत सिंह को हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई का सबसे बड़ा सिपाही भी मानते हैं लेकिन.. और ये लेकिन बहुत बड़ा है। क्योंकि भगत सिंह के बारे में ये सारी बातें अपनी जगह सही हैं लेकिन क़िस्से और कहानियों से निकलकर जब हम दस्तावेज़ की हक़ीक़त पर उतरते हैं तो वहां हमें भगत सिंह (Bhagat Singh) कहीं भी नज़र नहीं आते। क्योंकि हमारे देश में आज भी क्रांतिकारी भगत सिंह को शहीद का आधिकारिक दर्जा हासिल नहीं है।

91 साल बाद भी हक़ की तलाश

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23 MARCH BALIDAN DIVAS: 23 मार्च 1931 को अंग्रेजों ने आज़ादी के तीन मतवालों , भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी के फंदे पर लटका दिया था। इतना ही नहीं फांसी पर चढ़ाने के बाद तीनों के शवों को उनके परिवार को न देकर व्यास नदी के किनारे लावारिस हालत में जला भी दिया गया था। इस वाकये को 91 साल बीत चुके हैं।

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भारत को अंग्रेजों की ग़ुलामी से निकले हुए भी 75 साल से ज़्यादा का वक़्त हो चुका है। हम सभी 23 मार्च को तीनों क्रांतिकारियों के बलिदान को याद करते हुए इस दिन को बलिदान दिवस के तौर पर मनाते भी हैं, बावजूद इसके बीते कई सालों से ये रिवाज़ बन चुका है कि हर बलिदान दिवस पर ये बात उठती है कि आखिर क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को शहीद का दर्जा कागज़ों पर कब दिया जाएगा।

कौन सा क़ानून रोक रहा सरकार को?

Shaheed Divas: सवाल यही उठता है कि भारत सरकार की ऐसी वो कौन सी मजबूरी है जिसकी वजह से शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की शहीद का दर्जा पाने की फाइल अब भी मंत्रालय से मंत्रालय तक भटक रही है। क्या इसके पीछे कोई क़ानूनी पचड़े हैं? क्या कोई क़ानून ऐसा करने से रोक रहा है? आखिर क्यों भगत सिंह को ये मुल्क़ उसका असली हक़ तक नहीं दे पा रहा है।

ये बात यूं ही सामने नहीं आई। न ही किसी की ख़ामाख्याली है, बल्कि एक सरकारी दस्तावेज़ के जरिए इस बात ने अपना सिर उठाया है, जब सरकारी महकमों से ये जानने की कोशिश की गई, सूचना के अधिकार यानी RTI के ज़रिए तो पता चला कि राष्ट्रपति भवन ने इस तरह के आवेदन को गृहमंत्रालय के पास भेजा है।

गृह मंत्रालय (Home Ministry) ने इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया यानी NATIONAL ARCHIVE OF INDIA को ये जिम्मेदारी सौंप दी है। मगर फाइलों को इधर से उधर भटकने के बावजूद अभी तक इस सवाल का कोई भी संतोष जनक जवाब सामने नहीं आ सका।

ये ठप्पा कब तक यूं ही लगा रहेगा?

जब हम छोटे थे तब भी और जब आज हमारे बच्चे छोटे हैं तब भी यही पढ़ाया जा रहा है कि भगत सिंह ने 23 साल की उम्र में हंसते हंसते फांसी का फंदा चूम लिया था और शहीद हो गए थे। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर क्रांति की नई मशाल जलाई थी। जिस उम्र में नौजवान अपने हक़ के बारे में सोचते हैं अपनी ज़रूरतों के लिए इधर उधर दौड़ते फिरते हैं उस 23 साल की उम्र में भगत सिंह ने देश और आने वाली पीढ़ियों के बारे में सोचा।

इतिहास की किताबों में लिखा है कि 15 अगस्त 1947 को भारत में TRANSFER OF POWER हुआ था। देश की सत्ता अंग्रेजों के हाथ से हिन्दुस्तानियों के हाथ में आ गई थी। लेकिन इतने बरस बीत जाने के बावजूद ऐसे अनगिनत भारतीय हैं जिन्हें उनका ज़रूरी सम्मान नहीं मिल सका। और उन लोगों की तरफ किसी ने तवज्जो नहीं दी जिन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी और लड़ते लड़ते और हंसते हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए।

कुछ इतिहास की किताबों में तो ये भी लिखा हुआ है कि जिन लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत का सामना बम और पिस्तौल से किया और इसी ज़ोर से भारत को आज़ाद कराने का सपना देखा उन क्रांतिकारियों को आतंकवादी तक कहा गया।

ऐसे में सवाल उन तमाम नेताओं की नीयत पर खड़ा हो जाता है कि जो इन क्रांतिकारियों का नाम लेकर चुनाव तो लड़ते हैं और जीत भी जाते हैं लेकिन उसके बाद इन क्रांतिकारियों और शहीदों को उनका हक़ तक नहीं दिला पाते या दिलाने की कोई कोशिश तक करते नहीं दिखाई देते। आज़ाद भारत में कितनी सरकारें आईं और चली गईं लेकिन शहीदे आज़म भगत सिंह के माथे पर जो ठप्पा अंग्रेज लगाकर चले गए थे उसे हटाने या मिटाने की कोशिश किसी ने भी नहीं की।

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