अलीगढ़ के मज़बूत ताले की ताली बनाने वाले हाथ जुर्म की कालिख़ से सने, ताले और तालीम वाले शहर की अनसुनी दास्तां

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14 Feb 2022 (अपडेटेड: Mar 6 2023 4:13 PM)

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अलीबढ़ से बबलू ख़ान और सुरभि तिवारी के साथ गोपाल शुक्ल की रिपोर्ट

अपने ताले और तालीम के लिए पूरी दुनिया में अलीगढ़ की सबसे अलग और अनोखी पहचान है। अलीगढ़ का ज़िक्र जुबां पर आते ही जो चीज़ नज़रों के सामने सबसे पहले आती है वो है ताला। पूरी दुनिया में अलीगढ़ अपने मजबूत और भरोसेमंद तालों के लिए ही मशहूर है। यानी दुनिया में जब भी कोई ताले का ज़िक्र करता है तो वो सबसे पहले अलीगढ़ का ही ज़िक्र करता है।

अलीगढ़ के ताले की उम्र 162 साल की है। यानी162 साल पहले 1860 में अलीगढ़ के ताले का वजूद सामने आया था। और उसके बाद से ही ये ताला अलीगढ़ की पहचान बनता चला गया। लेकिन दुनिया भर में हिन्दुस्तान का नाम कामयाबी के आसमान पर पहुंचाने वाला ये ताला कारोबार आज शायद अपने सबसे बुरे दौर से भी गुज़र रहा है।

कहां खो गई ताले की तरक्की की कुंजी

crimetak Special: ये दौर इतना बुरा है कि ताले को बनाने वाले कारीगर अब ताला तोड़ने वाले गिरोह का हिस्सा तक बन गए हैं। यानी जो हाथ मजबूत ताले की बेजोड़ तालियां बनाया करते थे आज वहीं हाथ उन मजबूत तालों की कमज़ोर कड़ी को तोड़कर गुनाह के रास्ते पर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं।

खुद ताला बनाने वाले कारोबार से जुड़े कोयो और रेयान ताला के मालिक अब्दुल वाजिद की मानें तो उन्हें भी बीते तीन सालों के दौरान ताला कारीगरों के चोरों के गैंग में शामिल होकर ताला तोड़कर चोरी करने के अनगिनत क़िस्से सुनने को मिले हैं।

कितना अजीब इत्तेफ़ाक है कि जो अलीगढ़ दुनिया भर में अपने मजबूत तालों के लिए पहचाना जाता है वही अलीगढ़ बीते कुछ समय से ताला तोड़कर चोरी करने की वारदात से परेशान हो गया है।

ताला कारोबार की जमीनी सच्चाई ये है

crimetak Special: अलीगढ़ की ताजा वारदात अब्दुल वाजिद की बातों की तस्दीक भी करती दिखाई देती हैं। महज एक हफ्ते के भीतर यानी पिछले 8 फरवरी से लेकर 14 फरवरी के बीच अलीगढ़ में करीब दो दर्जन से ज़्यादा ताला तोड़कर चोरी करने की वारदातें सामने आ चुकी हैं।

37 लाख से ज़्यादा आबादी वाले अलीगढ़ में बीते एक साल के भीतर पुलिस के पास क़रीब साढ़े चार हज़ार से ज़्यादा चोरी की वारदात की रिपोर्ट दर्ज हो चुकी हैं। जो अपने आप में सनसनीखेज़ है। ताला कारोबारियों की बातों पर यकीन किया जाए तो ताला कारोबार की तरक्की के रास्ते में घाटे और नुकसान ने ऐसा ताला जड़ा गया है जिससे बचकर निकलने की चाबी यहां के हुनरमंद कारीगर भी नहीं बना पा रहे हैं।

ताला और तालीम के शहर की दुर्दशा

क्या अजीब इत्तेफ़ाक है कि अलीगढ़ में ताला और तालीम दोनों की ही शुरूआत लगभग एक साथ ही हुई है। लेकिन तालीम के मुकाबले यहां का ताला उम्र में थोड़ा बड़ा है। क्योंकि ताला कारोबार की शुरुआत 1860 में हुई जबकि तालीम के लिए पूरे हिन्दुस्तान में अपनी अलग पहचान बनाने वाली अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना 1875 में हुई थी।

सर सैय्यद अहमद ख़ान ने यहां मोहम्मद एंग्ले ओरियंटल कॉलेज की स्थापना की थी जो 1920 में एक अध्यादेश के तहत सेंट्रल रेजिंडेंट यूनिवर्सिटी के तौर पर स्थापित हुई। इतना ही नहीं इस यूनिवर्सिटी के देश के अलग अलग हिस्सों में तीन अलग अलग कैंपस भी खोले गए। दक्षिण में मल्लापुरम कैंपस केरल में, मुर्शिदाबाद कैंपस पश्चिम बंगाल में, जबकि किशनगंज सेंटर बिहार में।

नौजवानों ने दिखाई नई रोशनी

इसी तालीम की रोशनी में अपने बुजुर्गों की विरासत को जिंदा रखने की गरज से कुछ नौजवानों ने ताला कारोबार को ग्लैमर वर्ल्ड के स्टेज तक लाने की जिम्मेदारी उठाई है। आज की ज़रूरत और अपनी विरासत के खांचे में टेक्नोलॉजी का लीवर लगाकर ताले को मॉर्डर्न लॉक की शक्ल देने में लगे हुए हैं।

सरकारी दस्तावेज बताते हैं कि 4000 करोड़ का सालाना कारोबार करने वाला ये ताला कारोबार सरकार को 216 करोड़ रुपये का राजस्व भी प्रदान करता है। इससे ये तो अंदाज़ा मिल जाता है कि ये कारोबार असल में कितना बड़ा है। लेकिन इसकी एक और भी शक्ल है जो इसकी गुर्बत की कहानी भी कहने से पीछे नहीं हटती।

ताले के कमज़ोर पड़ने का ये है सच

असल में नोटबंदी के बाद बाज़ार में कैश की कमी ने ऐसे हालात पैदा कर दिए कि देखते ही देखते अलीगढ़ में कुटीर उद्योग की शक्ल ले चुके ताला कारोबार की 10 हज़ार से ज़्यादा यूनिट बंद हो गईं। पहले नोटबंदी और बाद में GST लागू होने के बाद 80 फीसदी कारोबार और उससे जुड़े लाखों लोग प्रभावित हुए।

मौजूदा हालात में इस वक्त अलीगढ़ में करीब पांच हज़ार यूनिट ताला बनाने के काम में लगी हुई हैं जिनमें सीधे तौर पर दो लाख से ज़्यादा लोगों की रोजी रोटी जुडी हुई है।

यहां के बने ताले आमतौर पर पूर्वी एशियाई देशों के साथ साथ खाड़ी के देश,अफ्रीकी देश और दक्षिण अमेरिकी देशों में सबसे ज़्यादा पसंद किए जाते हैं।

ताले की कोख में छुपी हुनर और मेहनत

पूरे देश में तालों की सप्लाई का 75 फीसदी जिम्मा उस अलीगढ़ पर है, जहां के बने तालों की मज़बूती और क्वॉलिटी को लेकर मुल्क में किसी को कोई शक नहीं है।

दिखने में मामूली सा दिखने वाला ताला कम से कम अपनी कोख में 25 से ज़्यादा पुर्जों को समेटे रहता है जबकि बनने के रास्ते में इसे कम से कम 70 जोड़ी हाथों से गुज़रना पड़ता है। इतना सब कुछ होने के बाद भी ये कारोबार आज भी कच्चा कारोबार कहलाता है। जिसमें करीब 90 फीसदी कारीगर या तो दिहाड़ी मज़दूर हैं या फिर 15 दिन के करार पर काम करते हैं।

ताला कारोबारियों के हवाले से कहा जाए तो हालात कुछ इस कदर ख़राब हैं कि अब तो इसे अपना वजूद बचाए रखने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है। यूं समझ लीजिए कि ताले में हालात के बरसते पानी ने उसके भीतरी हिस्से में घाटे और नुकसान की ऐसी ज़ंग लगा दी है जिससे इसकी तरक्की की चाबी अटक कर रह गई है।

मगर अपनी विरासत से प्यार करने वाली नई पीढ़ी ने एक बार फिर ताला नगरी को नई उम्मीदों की रोशनी की झलक दिखाई है। मुमकिन है कि दुनिया भर में मजबूती की पक्की गारंटी देने वाला अलीगढ़ी ताला एक बार फिर पूरी मजबूती से तरक्की के आसमान पर अपनी नई और पुख़्ता पहचान बनाने में कामयाब हो जाएगा।

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