अफगानिस्तान में तालिबान की गोलियों की तड़तड़ाहट के बीच उम्मीद की किरण है सलीमा मजारी, सलीमा मजारी बल्ख प्रांत के जिले चारकिंट की गवर्नर हैं, जो मजार-ए-शरीफ के दक्षिण में करीब एक घंटे की दूरी पर है. ये एक पहाड़ी इलाका है। चारकिंट ज़िले की गर्वनर सलीमा मजारी देश को तालिबानियों से आज़ाद कराने के मिशन पर हैं। उनकी इस हिम्मत के लिए लोगों ने उन्हें एक नया नाम दिया है, मर्दानी। कहते हैं कि अफगानिस्तान की इस मर्दानी के आगे तालिबान का भी नहीं चलता है जोर?
तालिबानियों का काल बनी ये 'मर्दानी'!
Afghanistan Salima Mazari Fighting Against talibani terorists
ADVERTISEMENT
10 Aug 2021 (अपडेटेड: Mar 6 2023 4:03 PM)
सलीमा मजारी की राह कतई आसान नहीं है, क्योंकि चारकिंट का आधा हिस्सा तालिबान के नियंत्रण में आ गया है। और फिलहाल सलीमा बाकी बचे इलाके की रक्षा के लिए सेनानियों को भर्ती करने में जी-जान से जुटी हैं। शुरुआत में कठिनाई आई लेकिन अब सलीमा मजारी के साथ धीरे धीरे लोग जुड़ रहे हैं और उनकी सेना में बड़ी संख्या में स्थानीय लोग शामिल हुए हैं, जिनमें किसान, चरवाहे और मजदूर शामिल हैं।
ADVERTISEMENT
लेकिन, दिक्कत ये थी कि पहले किसी के पास भी बंदूक नहीं हुआ करती था। लेकिन, अब लोगों ने बंदूक खरीदने के लिए अपनी जमीनों को गिरवी रखना या बेचना शुरू कर दिया है। लोगों ने तालिबान से लड़ने के लिए काफी बड़ी कुर्बानियां दी हैं, अपने मवेशियों को बेच दिया है और दिन रात सैकड़ों लोग अपने जिले की सीमा पर तालिबान को रोकने के लिए तैनात रहते हैं।
मजारी ने अब तक जिले में पारंपरिक सुरक्षा बलों के रूप में करीब 600 स्थानीय लोगों की भर्ती की है, जिला पुलिस का भी मानना है कि तालिबान के कब्जे में ना आने का एकमात्र कारण स्थानीय प्रतिरोध है। क्योंकि सलामी की लीडरशीप में इन लोगों का मंत्र साफ है 'मातृभूमि, मैं तुम्हारे लिए अपनी जान कुर्बान करता हूं। और जब जेहन में मुल्क की रक्षा का सवाल बार-बार कौंधता हो तो फिर राह में कोई भी बाधा आए उसे रोकना मुश्किल नहीं है।
सलीमा ऐसे ही मर्दानी नहीं बनी, इसके पीछे सालों की मेहनत है। हजारा समुदाय से ताल्लुक रखने वाली सलीमा मजारी ने जिंदगी में काफी उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन जब वो अफगानिस्तान वापस लौटी तो बिल्कुल नए तेवर के जरिए चारकिंट ज़िले के माहौल को बदल डाला, लेकिन इस बार फिर नई चुनौती है। सामने तालिबान है और मुल्क को तालिबान से महफूज रखने के लिए वो मैदान में मोर्चा ले रही है।
बड़ा चश्मे लगाए और बटरफ्लाई डिजाइन का स्कार्फ पहने सलीमा मजारी अगर तालिबान के खिलाफ मोर्चा ले रही है तो उसके पीछे देश के लिए मर मिटने का जज्बा है। आखिर आतंकियों के खिलाफ सलीमा मजारी कैसे लोगों को एकजुट करने में कामयाब हुई तो इसके लिए आपको सलीमा के अतीत में चलना होगा।
सलीमा का जन्म बतौर शरणार्थी ईरान में हुआ। वे वहीं पली-बढ़ीं। यूनिवर्सिटी कोर्स पूरा किया, ईरान में अच्छी नौकरी भी मिल गई थी। लेकिन सलीमा ने ठान लिया था कि वो बतौर रिफ्यूजी पूरी जिंदगी नहीं काटेंगी। लिहाजा सलीमा ने अपने पति और बच्चों के साथ मुल्क लौटने का फैसला किया। मकसद बिल्कुल साफ था देश को आतंकियों से बचाकर अमन-चैन कायम करना। लेकिन जब अपने वतन में सलीमा के पैर पड़े तो हालात भयावह थे। खासतौर पर महिलाओं और लड़कियों के लिए स्थिति बेहद खराब थी।
शिक्षा और रोजगार से वो महरूम थे, सामाजिक तौर पर लोग एक महिला नेता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। इसके अलावा माजरी हजारा समुदाय से आती हैं और समुदाय के ज्यादातर लोग शिया हैं। जिन्हें सुन्नी मुसलमानों वाला तालिबान बिल्कुल पसंद नहीं करता, तालिबान और इस्लामिक स्टेट के लड़ाके उन्हें नियमित रूप से निशाना बनाते हैं। लेकिन कहते हैं ना अगर किसी चीज को पूरा करने की जिद हो तो फिर हालात कितने भी बदतर हो मंजिल मिल ही जाती है।
सलीमा ने डटकर हर मुश्किल चुनौतियों का सामना किया, धीरे-धीरे लोगों की मानसिकता बदली। सलीमा के नेतृत्व में चारकिंट के लोग एकजुट हुए क्योंकि यहां के लोगों का जेहन आज भी तालिबान की बुरी यादों से भरा हुआ है। उन्हें ये अहसास है कि अगर एक बार तालिबान ने यहां पूरी तरह से कब्जा कर लिया तो फिर उनकी जिंदगी नर्क बन जाएगी। हालांकि आधे जिलों पर तालिबान का नियंत्रण स्थापित हो चुका है और बाकी इलाके की रक्षा के के लिए सलीमा मजारी दिन भर लड़ाकों की तलाश करती हैं।
अब तक उन्होंने अपने इलाके में आने से तालिबान को रोक कर रखा हुआ है। माजरी जानती हैं कि अगर आतंकियों ने वापस अपने पैर जमा लिए तो वो फिर किसी महिला के नेतृत्व को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। महिलाओं की पढ़ाई-लिखाई पर न केवल रोक लग जाएगी बल्कि उनके जिंदगी को जहन्नुम बना दिया जाएगा, ऐसे हालात बनने से रोकने के लिए वो लगातार मिशन पर है। जंग की रणनीति को अमलीजामा पहनाने में जुटी हुई है, हालांकि किसानों और छात्रों की फौज के साथ वो तालिबान को कब तक रोक पाएंगी, कहना मुश्किल है लेकिन सलीमा ने हार नहीं मानी है क्योंकि वो है असली मर्दानी।
ADVERTISEMENT