रक्षाबंधन का दिन यहां माना जाता है मनहूस, अनहोनी की आशंका से सैकड़ों साल से सूनी पड़ी हैं राखी पर भाइयों की कलाइयां

देश के कई ऐसे हिस्से हैं जहां रक्षाबंधन (Rakshabandhan) का त्योहार नहीं मनाया जाता। पूरा का पूरा कस्बा, यहां तक कि कई गांव ऐसे हैं जहां के बाशिंदे राखी (Rakhi) का त्योहार (Festival) नहीं मनाते। इन इलाकों के लोग जहां भी रहते हैं वहां राखी (Rakhi) का त्योहार नहीं मनाते। क्योंकि उनका मानना है कि अगर उन्होंने भूल कर भी ये त्योहार मनाया तो उनके साथ सैकड़ों साल पुरानी वही अनहोनी घट सकती है।

CrimeTak

19 Aug 2024 (अपडेटेड: Aug 19 2024 4:43 PM)

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न्यूज़ हाइलाइट्स

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'काला दिन' माना जाता है राखी का त्योहार

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सैकड़ों साल से सूनी हैं भाइयों की कलाई

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700 साल पुरानी रक्षाबंधन न मनाने की परंपरा

Delhi: रक्षाबंधन का त्योहार पूरे देश में मनाया जा रहा है। क्या आप जानते हैं कि देश के कई ऐसे हिस्से हैं जहां यह त्योहार नहीं मनाया जाता। पूरा का पूरा कस्बा और कई गांव भी ऐसे हैं जहां के बाशिंदे रक्षाबंधन नहीं मनाते हैं। इन गांव कस्बों के लोग जहां भी रहते हैं वहां भी राखी का त्योहार नहीं मनाते। बल्कि रक्षाबंधन के दिन ये किसी अनहोनी की आशंका से घिर कर इसे मनहूस मानने पर मजबूर हो जाते हैं। इन इलाकों में रक्षाबंधन न मनाने के पीछे कई तरह की वजहें बताई जाती हैं। आइए सिलसिलेवार बताते हैं कि कहां और क्यों रक्षाबंधन नहीं मनाया जाता। देश की राजधानी दिल्ली से सटे मुरादनगर के सुराना गांव के लोग रक्षबंधन का त्योहार नहीं मनाते। वजह है मोहम्मद गौरी। जी हां 12वीं शताब्दी में अफगानिस्तान से आए हमलावर मोहम्मद गौरी ने रक्षाबंधन के रोज इस गांव पर हमला किया था और बड़े पैमाने पर नरसंहार किया था। इस हमले में गौरी ने एक महिला और उसके बच्चे को छोड़कर सभी गांववालों को मार डाला था। महिला और बच्चा बच गए क्योंकि हमले के समय वे गांव में नहीं थे।

यहां नहीं मनाया जाता रक्षाबंधन का त्योहार

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गौरी के हमले के बाद वक्त गुजरता गया और सुराना गाँव फिर से आबाद हुआ और रक्षाबंधन का त्यौहार फिर से मनाया गया। लेकिन उसी समय गांव का एक बच्चा विकलांग हो गया तभी से ग्रामीणों ने रक्षाबंधन को शापित मानकर त्योहार मनाना बंद कर दिया। इस गांव के लोग रोजगार के लिए अपना पैतृक गांव छोड़कर कई शहरों में बस गए हैं लेकिन आज भी कोई रक्षाबंधन नहीं मनाता। सुराना के कुछ मूल निवासी अब मेरठ के जागृति विहार, शास्त्री नगर, मुज्जफरनगर जैसे इलाकों में रहने लगे हैं। ये परिवार भी रक्षाबंधन नहीं मनाते हैं। गांव के लोग अपना व्यवसाय या नौकरी करने के लिए दिल्ली, नोएडा, मेरठ, मुरादाबाद के साथ-साथ देश के अन्य शहरों में जा चुके हैं।

सिर्फ एक महिला और उसके बच्चे बचे थे

कुछ तो ऊँचे पदों पर भी हैं, लेकिन दुर्भाग्य कहें या फिर किसी अनहोनी की आशंका, रक्षाबंधन के दिन इसी अनजाने डर से कोई रक्षाबंधन नहीं मनाता। इस दिन घर में चूल्हा तो जलता है लेकिन भोजन के नाम पर सिर्फ नमक की रोटी ही बनाई जाती है। इस गांव के रहने वालों के मुताबिक सुराणा गांव को आठवीं शताब्दी में राजपूतों ने बसाया था, तब इस गांव का नाम सोहनगढ़ हुआ करता था। 12वीं शताब्दी में जब मोहम्मद गोरी जंग करता हुआ यहां से गुजरा तो उसने सब कुछ खत्म कर दिया। चाबिया जनजाति की एक महिला हमले में बच गई क्योंकि वह उस समय गांव में नहीं थी। बाद में उनके बेटे लाखन और चूड़ा वापस आये और उन्होंने गाँव फिर से बसाया। फिलहाल इस गांव की कुल आबादी में 50 फीसदी छबिया यादव हैं।

राखी का त्योहार 'काला दिन'

बात सुराना में ही खत्म नहीं होती देश का एक इलाका ऐसा भी है जहां राखी के त्योहार को 'काला दिन' माना जाता है, इसलिए बहनें भाइयों की कलाई पर राखी नहीं बांधती हैं। रक्षाबंधन को काला दिन मानने के पीछे की वजह सालों पुरानी है। यूपी के संभल जिले के बेनीपुर गांव के भाइयों की कलाइयां हर साल रक्षाबंधन पर सूनी रहती हैं। इस दिन गाँव में राखी नहीं मनाई जाती। इसके पीछे का कारण 300 साल पहले एक बहन द्वारा अपने भाइयों को राखी बांधने के बाद दिया गया उपहार बताया जाता है। यह परिवार यादव समुदाय से है। हर साल रक्षाबंधन का त्योहार आता है लेकिन गांव में कोई इसका जिक्र तक नहीं करता।

300 साल से सूनी हैं भाइयों की कलाई

बताया जाता है कि संभल के बेनीपुर चक गांव के लोग 300 साल पहले इस गांव में आकर बस गए थे। ग्रामीणों के मुताबिक, उनके पूर्वज पहले यूपी के अलीगढ़ जिले के अतरौली थाना क्षेत्र के सेमरी गांव में रहते थे। गांव में यादव और ठाकुर समुदाय के परिवार बसे हुए थे। दोनों परिवार एक दूसरे से प्यार करते थे। रक्षा बंधन के त्यौहार पर यादव परिवार की लड़कियाँ ठाकुर परिवार के लड़कों को राखी बांधती थीं और ठाकुर परिवार की लड़कियाँ यादव परिवार के लड़कों को राखी बांधती थीं। एक बार रक्षाबंधन के त्यौहार पर यादव परिवार की एक लड़की ने अपने ठाकुर भाई से राखी के हार के बदले में एक घोड़ा माँगा। भाई ने बहन की मांग पूरी कर दी।

पूरा गांव नहीं मनाता रक्षाबंधन

ग्रामीणों ने बताया कि अगले साल जब फिर रक्षाबंधन का त्योहार आया तो इस बार ठाकुर परिवार की लड़की ने अपने यादव भाई से पूरा गांव मांग लिया।अपनी बहन की इच्छा पूरी करने के लिए सेमरी गांव में रहने वाले यादव परिवार ने अपनी सारी संपत्ति उनकी बहन को दान कर दी और गांव छोड़ दिया और संभल के दूसरे इलाकों में जाकर बस गए। उस दिन से लेकर आज तक कई पीढ़ियां गुजर जाने के बाद भी यादव परिवार के लोग रक्षाबंधन नहीं मनाते हैं। उनका मानना ​​है कि कोई भी बहन दोबारा उनसे उनकी जागीर जमीन जायदाद मांगकर उन्हें बेघर ना कर दे। यही वजह है कि बेनीपुर चक गांव के अलावा कई गांवों में बसे यादव परिवार रक्षाबंधन का त्योहार नहीं मनाते हैं।

रक्षाबंधन पर जश्न नहीं शोक मनाते हैं लोग

आपको बताते चलें कि हिंदुओं का एक समुदाय ऐसा है जिसने लंबे समय से इस त्योहार को मनाने से इनकार करता रहा है। दरअसल देश भर में फैले लाखों पालीवाल ब्राह्मण रक्षाबंधन को शोक दिवस के रूप में मनाते हैं और अपने पूर्वजों की याद में तर्पण करते हैं। रक्षा बंधन के दिन, पालीवाल ब्राह्मण 13वीं शताब्दी की एक दुखद घटना को याद करते हैं जिसमें उनके कई पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की मौत हो गई थी। बताया जाता है कि पालीवाल ब्राह्मण पहले गौड़ ब्राह्मण के नाम से जाने जाते थे। ये समुदाय मूलत: पाली में रहता था लिहाजा पालीवाल ब्राह्मण कहलाता है। पालीवाल ब्राह्मणों की रक्षाबंधन न मनाने की परंपरा कम से कम 700 साल पुरानी है।

रक्षाबंधन न मनाने की परंपरा कम से कम 700 साल पुरानी

श्रावण मास की पूर्णिमा को मुगल शासक फिरोज शाह की सेना ने नरसंहार किया था। नरसंहार के बाद से पालीवाल ब्राह्मण अपने परिवारों की रक्षा करने में असमर्थ रहा। जिसके पश्चाताप के तौर पर इस समाज से जुड़े लोग रक्षा बंधन नहीं मनाते हैं। इतिहासकारों के मुताबिक यह 1291-92 की बात है जब दिल्ली में मुग़ल शासक फ़िरोज़ शाह द्वितीय ने पालीवालों को लूटने के उद्देश्य से अपनी सेना के साथ पाली क्षेत्रों में रहने वाले लोगों पर हमला किया। बड़ी संख्या में लोग मारे गए और उनमें से बड़ी संख्या में ब्राह्मण थे जो लखोरिया तालाब पर तर्पण करने के लिए एकत्र हुए थे। 

कहीं भी रहें, लेकिन नहीं मनाते त्योहार

उनके शवों को कई गायों के शवों के साथ तालाब में फेंक दिया गया था, जिन्हें लुटेरे मुगल सैनिकों ने भी मार डाला था। इस हत्याकांड के बाद इलाके में पुरुषों के 50 किलो पवित्र धागे और महिलाओं की 3,340 किलो चूड़ियां मिली थीं। इसके बाद ब्राह्मणों ने पाली को हमेशा के लिए छोड़ दिया और जैसलमेर आ गए, जहां उन्होंने 84 गांव बसाए और उनकी आबादी 4 लाख से अधिक थी। पालीवाल शहर के अन्य स्थलों से पालीवाल ब्राह्मण मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के लिए रवाना हो गए। उस हमले में मारे गए पुरुषों के पवित्र धागे (यज्ञोपवीत) और महिलाओं की चूड़ियाँ पाली के धोलीताना में रखी गई हैं।

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