Jaipur, Rajasthan: अक्सर ऐसा फिल्मों में ही देखने को मिलता है कि किसी खंडहरनुमा जगह पर किसी पुलिस अफसर या इनवेस्टिगेटर या किसी जासूस को मकड़ी के जाले या छिपकलियों के पैरों के निशान से किसी सुराग तक पहुंचने का रास्ता दिख जाता है और फिर जो केस पूरे महकमें के लिए सिरदर्द बना हुआ रहता है, वो देखते ही देखते चुटकियों में सुलझ जाता है। मगर कहते हैं कि फिल्में हमारे समाज का ही तो आइना हैं। यानी जो कुछ भी फिल्म में दिखाया जाता है वो हमारे इर्द गिर्द होने वाले किसी घटना से ही तो उठाया जाता है।
एक मरी हुई मकड़ी और उसके जाले ने ऐसे सुलझा दी Mystery, खुल गया करोड़ों का दबा हुआ राज
Solved The Mystery: जयपुर की एफएसएल की टीम ने कुछ साल पहले एक मरी हुई मकड़ी और मकड़ी के जाले से एक ऐसी गुत्थी सुलझाई थी जिसमें एक फैक्टरी मालिक ने सरकारी खजाने को चूना लगाने के लिए पूरा एक जाल बिछा रखा था और अपनी शातिर चालों से चकमा देने की फिराक में लगा रहता था, मगर जब जांच एजेंसी अपने पर आई तो उसने मरी हुई मकड़ी से भी जिंदा सच्चाई निकाल ली।
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02 Sep 2024 (अपडेटेड: Sep 2 2024 2:06 PM)
न्यूज़ हाइलाइट्स
फैक्टरी मालिक का गोरखधंधा, दो फैक्टरियों के बीच छुपा एक राज
धूल और मकड़ी के जाले में छुपाया गया करोड़ों का घपला
जयपुर FSL ने खोज निकाली फैक्टरी वाली मकड़ी की पूरी कुंडली
ऐसा सबक जो पुलिस ट्रेनिंग में आता है काम
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बस ऐसा ही एक सच्चा किस्सा जयपुर का सामने आया, जब एक मकड़ी और उसके जाल से करोंड़ों रुपये की एक्साइज टैक्स की चोरी का राज खुल गया। मगर ये कहानी सा लगने वाला किस्सा एकदम सच है। और ये सच इतना जबरदस्त है कि आज भी पुलिस ट्रेनिंग में ये किस्सा नए रंगरूटों को पढ़ाया और सिखाया जाता है। इस केस को सुलझाया था जयपुर की फॉरेंसिक साइंस लाइब्रेरी ने। वो साल था 2009। ये तो सभी जानते हैं या अब तो देख देखकर समझ ही गए हैं कि जब भी कहीं कोई वारदात या जुर्म होता है तो उस केस को सुलझाने के लिए मौके पर पहुँची पुलिस और जांच अधिकारी हाथों में ग्लव्ज पहन लेते हैं। कैमरे से तस्वीरें उतारी जाती है, और ब्रश से एक एक जगह को पाउडर लगा लगाकर वहां से उंगलियों के निशान उठाए जाते हैं।
बीकानेर की फैक्टरी की चालबाजी
असल में इस किस्से का एक सिरा राजस्थान के बीकानेर से जाकर जुड़ता है। बीकानेर की एक कंपनी बिजली की हाईटेंशन लाइनों में लगने वाले सिरामिक इन्सुलेटर्स बनाने का काम करती थी। उसकी दो फैक्ट्रियां थीं। एक फैक्ट्री कम आय के तहत लघु उद्योग इंडस्ट्री में रजिस्टर्ड थी। उस पर करीब डेढ़ करोड़ तक का माल बेचने पर एक्साइज ड्यूटी नहीं लगती थी। असल में कंपनी के मालिक बड़ी ही चालाकी से छोटी फैक्टरी में लाकर बड़ी फैक्टरी का माल बेचते थे और इसी छोटी बड़ी के माल का इस कदर हेर फेर करते थे कि सारे डिपार्टमेंट चकरघिन्नी की तरह घूम जाते थे।
दो फैक्टरियों में फैला जाल
उनकी दो फैक्टरियां थी एक लघु उद्योग वाली फैक्टरी और एक बड़ी फैक्टरी। वो अपनी छोटी फैक्ट्री का माल अपनी दूसरी बड़ी फैक्ट्री में बनवाते थे। और तैयार माल को छोटी फैक्ट्री का बताकर बेचा करते थे। इस तरह दोनों ही फैक्ट्रियों में करीब डेढ़ करोड़ तक के माल पर वो एक्साइज ड्यूटी की चोरी कर लिया करते थे। मगर एक बार ये साहब उलझ गए और फंस गए। सेंट्रल एक्साइज डिपार्टमेंट को खबर मिली कि फैक्टरी का मालिक कुछ हेरा फेरी कर रहा है। जबकि जिस फैक्टरी का माल बाजार में बिक रहा है वो तो कई दिनों से बंद पड़ी है। लेकिन कारखाना मालिक बार बार यही दावा कर रहे थे कि उनका माल यहीं तैयार हो रहा है।
मशीनों पर जमी धूल की गवाही
असलियत ये थी कि उत्पाद शुल्क बचाने की नीयत से मालिक माल इसी फैक्ट्री में बनना बता रहे थे। फरवरी, 2009 को सेंट्रल एक्साइज डिपार्टमेंट की टीम ने फैक्ट्री पर छापा मारा। जब टीम मौके पर पहुंची तो पाया कि कंपनी देखने में ही काफी समय से बंद लग रही थी। पूछने पर कंपनी के मालिक ने बताया कि मशीनरी में खराबी आ जाने के कारण बीते 8-10 दिन से काम नहीं हो रहा।लेकिन टीम को कंपनी में लगी मशीनों पर जमी धूल मिटटी, गंदगी और फर्श आदि पर पैरों के निशान न देखकर स्पष्ट लग रहा था कि यह कई महीनों से बंद पड़ी है। टीम को इसे साबित भी करना था जिसके लिए पुख्ता सबूत भी चहिए थे। कई बार बारीकी से छानबीन करने पर भी जांच टीम के हाथ खाली ही रहे।
राजस्थान की फैक्टरी में रेत का राज
कोई भी ऐसी जानकारी हाथ नहीं लगी जो फैक्टरी मालिक को शिकंजे पर ला सके। क्योंकि फैक्टरी मालिक के पास एक्साइज टीम के हर सवाल का जवाब मौजूद था। मसलन जब उनसे पूछा गया कि फैक्टरी अगर सिर्फ 8 -10 दिन से बंद है तो फिर इसमें इतनी रेत क्यों जमी है, इस पर उनका जवाब होता था कि आस पास का रेतीला इलाका होने की वजह से तेज हवाओं के साथ धूल मिट्टी उड़ती रहती है और वो जमा हो जाती है, अगर दो दिन भी यूं छोड़ दो तो धूल की खासी मोटी परत जम जाती है।
मकड़ियों का मकड़जाल
फैक्टरी के भीतर मशीनों के ऊपर लगे मकड़ियों के जाले के बारे में उनका तर्क यही होता था कि ऐसी कई मकड़ियां हैं जो रोज रोज जाल बुनती रहती हैं। अगर जाला हटा भी दो तो भी वो बना लेती हैं। मशीनों की बंजर सी हालत के बारे में भी उनके जवाब पर सवालिया निशान लगाने हालत के बारे में वह बता ही चुके थे कि तकनीकी खराबी आने के कारण यूनिट बंद पड़ी है। सेंट्रल एक्साइज डिपार्टमेंट की टीम को निरीक्षण करने के बावजूद कोई पुख्ता सबूत हाथ नहीं लगे। ऐसे में टीम को बैरंग ही लौटना पड़ा।
ट्रैक पर बुना जाला
ऐसे में जांच अधिकारियों ने बीकानेर की मोबाइल FSL टीम की भी मदद ली। FSL टीम ने फैक्टरी का जायजा लिया। एक एक मशीन को हर तरह से खंगाला। ट्रॉली व्हील, पटरी, इलेक्ट्रिक पैनल और बोर्ड समेत सारी चीजों के फोटो और नमूने उठाए। हर जगह धूल की मोटी परत जमीं हुई मिली। हालांकि इन सबूतों से कुछ भी अंदाजा नहीं मिल सका कि आखिर ये फैक्टरी कब से बंद हो सकती है। इसके बाद जयपुर एफएसएल के उस वक्त के डायरेक्टर डॉक्टर बी बी अरोड़ा के निर्देश पर क्राइम सीन के इंचार्ज ने मौके का मुआयना किया। एक जगह झांककर देखा तो ट्रॉली के पहिये और ट्रैक पर जो मकड़ी के जाले लगे थे उसका हाई रेजोलूशन फोटे लिए। उन फोटो को बायोलॉजी और डीएनए प्रोफाइलिंग यूनिट के पास भेजा गया। सबूतों पर स्टडी शुरू की गई ताकि ये साबित हो सके कि फैक्टरी आखिर कब से बंद है।
मकड़ी की जांच पड़ताल शुरू हुई
गहराई से छानबीन शुरू हुई तो पता चला कि राजस्थान में बीकानेर इलाके में ऐसी मकड़ियां पाई जाती हैं जो अपने पूरे जीवन काल में सिर्फ एक बार ही जाला बनाती हैं। ये जानकारी और रिसर्च की बुनियाद पर FSL टीम ने पाया की यह एक खास प्रजाति की आर्टीमा एटलांटा मकड़ी (Artema Atlanta Spider) थी। तब फैक्टरी में मरी हुई मिली मकड़ी के नमूने को मंगवाया गया।
पूरी उम्र जी चुकी थी मकड़ी
फॉरेंसिक साइंस में एक तकनीक होती है फॉरेंसिक एंटोमोलॉजी। इस तकनीक का इस्तेमाल मकड़ी की मौत का समय और जगह का पता लगाने में किया जाता है। मृत्यु कब हुई यह शरीर के अलग अलग हिस्सों के खराब होने के चरणों का पता लगता है। मकड़ी के जाल में फंसे खोल, उसके शरीर के बचे हुए हिस्से और बालों की माईक्रोस्कोपिक जांच में इसकी प्रजाति की पुष्टि हुई। तभी ये तथ्य भी सामने आया कि जो मकड़ी वहां मरी मिली असल में उसने अपनी पूरी उम्र जी ली थी। उस बीच मकड़ी को किसी दूसरे परभक्षी यानी Predeator ने नहीं मारा था। इन मकड़ियों की उम्र आमतौर पर 130 से 140 दिनों तक की ही होती है। मतलब साफ था कि उस मकड़ी ने वहां तीन चार महीने पहले ही जाला बना लिया था। इस आधार पर एक रिपोर्ट तैयार हुई और उस रिपोर्ट में लिखा था कि कंपनी जिसे 8-10 दिन से बंद बताया जा रहा असल में वो कम से कम तीन महीने से तो बंद है ही।
कोर्ट में साबित हो गया गोरख धंधा
टीम ने अपने इस अहम सबूत के दम पर कंपनी की चालबाजी और गोरखधंधे को कोर्ट में साबित भी किया। जांच टीम ने ये भी बताया कि मकड़ी की हर प्रजाति के जाले बनाने का पैटर्न हाथों के फिंगर प्रिंट्स और आंखों के रेटिना की तरह एकदम यूनिक होता है। इस बात के साबित होते ही फैक्टरी मालिक की शातिर चाल का कोर्ट में खुलासा हुआ और कई सालों से डेढ़ करोड़ की बड़ी एक्साइज ड्यूटी की चोरी का पर्दाफाश हो सका।
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