दिल्ली, मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में प्राइवेट नौकरियों का ग्लैमर बहुत है, मगर चंबल के बीहड़ों और यमुना किनारे रहने वाले नौजवानों में 90 के दशक के आखिरी सालों तक डाकुओं की नौकरी बेहद ग्लैमरस हुआ करती थी। इसी ग्लैमर की वजह से बीहड़ में डकैतों की टोली के अंदर 250 से 500 तक डाकू हुआ करते थे। इस ग्लैमर की अलग अलग वजह थी, अच्छा पैसा, इंसेंटिव, शराब, शबाब और इलाके में भौकाल, कुल मिलाकर उन्हें वो सब कुछ मिलता था जिसकी जवानी में ज़रूरत होती थी।
प्राइवेट लिमिटेड कंपनी थी डकैतों की टोली! डाकुओं को मिलती थी सैलरी और बोनस
प्राइवेट लिमिटेड कंपनी थी डकैतों की टोली! डाकुओं को मिलती थी सैलरी और बोनस Dacoit runs their gangs as private limited company
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10 Feb 2022 (अपडेटेड: Mar 6 2023 4:13 PM)
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डाकुओं को कैसे मिलती थी सैलरी!
जिस सरगना की टोली होती थी, यानी जो गैंग का सीईओ होता था वो अपनी ज़रूरत के हिसाब से ऑनरोल और कैज़ुअल बेसिस पर डाकू बनने की चाह रहने वाले नए रंगरुटों की भर्ती करता था। कुछ लोग परमानेंट तौर पर सरगना के साथ काम करते थे और कुछ लोगों की भर्ती असाइनमेंट के हिसाब से वक्ती तौर पर की जाती थी। जहां तक बात सैलरी की थी तो वो कुछ इस तरह होती थी कि लूट, अपहरण और डकैती से जो भी पैसे आते थे उसकी आधा हिस्सा गैंग के सरदार को मिलता था और आधा हिस्सा बाकी लोगों में उनके एक्सपीरियंस के हिसाब से बांटे जाते थे। एक महीने में औसतन 50 वारदातों से हुई उगाहियों के बंटवारे को औसतन तौर पर देखा जाए तो गैंग के डाकुओं को महीने के 50 हज़ार रुपये उस दौर में मिल जाता था। इसके अलावा जितने ज़्यादा मामले उतना ज़्यादा इनसेंटिव।
कंपनी पर हर महीने खर्च होते थे 2 लाख रुपए
सैलरी और इनसेंटिव के अलावा कंपनी के दूसरे खर्च भी हुआ करते थे, मसलन डाकुओं का खाना पीना, रहना-पहनना और दूसरी तमाम चीज़ों में गैंग के पुराने सदस्यों के मुताबिक औसतन 2 लाख रुपए महीने का खर्च आया करता था। डाकू सलीम गुर्जर और फक्कड़ का जिस इलाके में दबदबा था उनमें से एक जलौन के बिलौड़ गांव के लोगों के मुताबिक रसद और शराब के लिए डाकुओं की टोली गांव के लोगों की मदद लेती थी।
कंपनी के डाकुओं के रिफ्रेशमेंट में होता था काफ़ी खर्च
ज़ाहिर है इतनी ग्लैमरस जॉब है तो उसके कर्मचारियों के रिफ्रेशमेंट और इंटरटेनमेंट पर भी काफी खर्च होता था। मिसाल के तौर पर जो शराब बाज़ारों में 200 रुपए की मिलती थी वो डाकुओं के अड्डे तक पहुंचते पहुंचते 1000 रुपयों की हो जाती थी। इसके अलावा डाकुओं का खाना पीना बहुत शाही होता था, जिसमें गोश्त से लेकर बादामों तक का इस्तेमाल होता था। इसके अलावा डाकुओं के इंटरटेनमेंट के लिए सरगना अलग अलग तरीके अपनाते थे।
कैज़ुअल कर्मचारियों को मिलती थी ज़्यादा सैलरी
अक्सर कंपनियों में परमानेंट कर्मचारियों को ज़्यादा सैलरी मिलती थी लेकिन डाकुओं की कंपनी में ज़्यादा सैलरी कैज़ुअल कर्मचारियों को दी जाती थी। उसकी वजह ये थी कि पुलिस के पास गैंग के पुराने डाकुओं का रिकॉर्ड होता था, लेकिन वो कैज़ुअल कर्मचारियों से अनजान रहती थी। लिहाज़ा गैंग लीडर अपने इन कैजुअल कर्मचारियों से ज़्यादा वारदातों को अनजाम दिलवाया करते थे। कुल मिलाकर जब तक बीहड़ों में डाकुओं का राज रहा तब तक यहां गैंग किसी प्राइवेट कंपनी की तरह काम करते रहे, यही वजह थी आज़ादी के करीब 60 सालों तक बीहड़ों में डाकुओं का राज रहा।
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